Saturday, 4 May 2019

Nature : On sale

हम सब जानते हैं कि हम वैश्वीकरण (Globalisation) के दौर में जी रहे हैं। अब कम्युनिकेशन और मार्केटिंग ग्लोबल लेवल पर हो रही है। बाजारीकरण (Marketization) उस स्तर पर पहुंच चुका है कि कोई भी चीज ऑनलाइन ऑफलाइन बड़ी आसानी से खरीदी जा सकती हैं। लेकिन, यह बाजारीकरण तब तक बहुत अच्छी चीज थी जब तक सिर्फ इंसान द्वारा बनाई गई चीजें ही इसके दायरे में थी। ख़ैर हालात तो उसी दिन से खराब होने शुरू हो गए थे जिस दिन से हेल्थ और एजुकेशन जैसी बेसिक ज़रूरतों का भी व्यवसायिकरण (Commercialization) शुरू हो गया था। लेकिन, आने वाला दौर शायद इससे कहीं ज्यादा बदतर होगा, क्योंकि अब इस व्यवसायीकरण की चपेट में हवा और पानी भी आ चुके हैं। मतलब अब शिक्षा और स्वास्थ्य के बाद पर्यावरण का भी व्यवसायीकरण हो चुका है। कैसे ? 
                     यूं तो प्राचीन काल से ही भारत नदी-नहरों का देश रहा है जिसकी वजह से यहां पर खेती-बाड़ी बड़े पैमाने पर चलती आ रही है और यही वजह है कि भारत कृषि प्रधान देश कहलाया है। लेकिन समय दर समय, अलग-अलग कारणों से ये नदियां प्रदूषित होती चली गई और साथ ही साथ कमी होती चली गई साफ पीने योग्य पानी की। अभी भी देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो स्वच्छ पानी से कोसो दूर है। यह भी एक विडंबना ही है कि हमें उस ग्रह पर पानी की कमी है जिस ग्रह के 71% हिस्से पर पानी है।
                   वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि भारत में 21% कम्युनिकेबल रोग प्रदूषित जल और साफ सफाई की कमी से जुड़े हैं। इसके अलावा, पाँच वर्ष से कम आयु के 500 से अधिक बच्चे अकेले भारत में दस्त से मरते हैं। कुछ साल पहले इसी तरह के आंकड़े जब सामने आए तो साफ पानी एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। संसद में चर्चाएं चली, टीवी पर डिबेट्स हुई, अखबारों में लेख छपे और न जाने क्या-क्या हुआ।
इन सबसे साफ पानी तो नहीं मिला लेकिन बाजार चलाने वाले कुछ लोगों को मार्केट चलाने का नया आईडिया जरूर मिल गया और मार्केट में आई वाटर फिल्टर मशीन, आर.ओ. (R.O.) और प्लास्टिक की फिल्टर्ड पानी की बोतलें। साफ पानी का ऐसा व्यवसायीकरण हुआ कि ये  मुद्दा ही कहीं बह गया। आज हालात यह है कि अब साफ पानी का मुद्दा मुद्दा ही नहीं रहा।
            ठीक ऐसा ही अब साफ हवा के साथ हो रहा है। पिछले 2 सालों में देश के ज्यादातर शहर गैस के चेंबर में तब्दील हो गई थे। दिल्ली जैसे राजधानी शहर में तो हवा सामान्य स्तर से 3 गुना ज्यादा प्रदूषित थी। अब क्योंकि यह मुद्दा नया था तो फिर से वही हुआ जो साफ पानी के लिए हुए था, वही चर्चाएं हुई, डिबेट्स, वही लेख- आलेख, वहीं गली नुक्कड़ पर लोगों की अपनी-अपनी राय। और एक चीज फिर से वही हुई, इन चर्चाओं और डिबेट ने मार्केट चलाने वालों को इस बार भी एक नया आईडिया दे दिया और मार्केट में आई एयर प्यूरीफायर मशीनें।
मतलब बिल्कुल साफ है कि साफ पानी के बाद अब साफ हवा का व्यवसायीकरण हो चुका है। तो हो सकता है कि अगली बार शुद्ध हवा का ये मुद्दा, मुद्दा ही ना हो। चौंकना मत अगर कुछ सालों बाद साफ पानी की तरह शुद्ध हवा भी आपको पैकेट में खरीदनी पड़े तो। 
                            चुनाव जीतकर सत्ता में आने के बाद हजारों लाखों रुपए देने की घोषणा तो बहुत सी राजनीतिक पार्टिया कर रही है लेकिन, क्या कोई ऐसी पार्टी भी मेरे देश में है जिनके घोषणा पत्र में पर्यावरण जैसा अहम मुद्दा प्राथमिक स्तर (Primary level) पर शामिल है ? 

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