Saturday, 22 September 2018

देश सर्वोपरि


पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा भारत सरकार और पीएम मोदी को कहे अपशब्दों के जवाब में कांग्रेस-भाजपा का एकजुट होकर इमरान खान को घेरना सचमुच अच्छी खबर है। अच्छी खबर इसलिए क्योंकि अरसे बाद ये राजनैतिक पार्टियां दलहित से ऊपर उठकर देशहित में एकजुट हुई है। ज्ञात हो कि भारत सरकार द्वारा इमरान खान के बातचीत प्रस्ताव को नकारे जाने के बाद इमरान खान ने भारतीय सरकार और पीएम मोदी का नाम लिए बिना अपशब्द भरा ट्वीट किया है। इमरान के इस ट्वीट के जवाब में कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने आतंकवाद जैसे मुद्दो पर इमरान को खरी-खोटी सुनाते हुए कहा कि कोई हमारे देश और पीएम को अपशब्द कहें, ये हम सह नही सकते। वहीं केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि जब तक हमारे सैनिकों की हत्या होती रहेगी, तब तक पाकिस्तान से कोई वार्ता नही होगी। इस तरह कांग्रेस और भाजपा ने एक संदेश पाकिस्तान को दिया है कि देश की राजनीति हम चाहे प्रतिद्वंदी हो, लेकिन बात जब देश और उसके सम्मान की आएगी तो हम एकजुट ही है। स्वर्गीय पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद के एक सत्र में कहा था कि सरकारें आएंगी-जाएंगी, ये पार्टियां रहे ना रहे, पर ये देश रहना चाहिए। शायद अटल जी भी आज कहीं बैठे गौरवांन्वित महसूस कर रहे होंगे। निसंदेह यह सराहनीय है। लेकिन, देश की जनता चाहती है कि इसी तरह ये दल देश के अन्य आंतरिक मुद्दो पर भी दलहित राजनीति से ऊपर उठकर देशहित में एकजुट हो क्योंकि, कोई दल चाहे कितना भी बड़ा हो जाए, देश सर्वोपरि था, है और हमेशा रहेगा।  

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Sunday, 16 September 2018

एम॰ एस॰ धोनी: द अनटॉल्ड स्टोरी



भारत में क्रिकेट के खेल के करोड़ों प्रशंसक हैं। इस खेल के दीवाने आपको भारत के कोने-कोने में मिल जाएंगे। क्रिकेट की दीवानगी का आलम ये है कि इसे भारत में धर्म की तरह पूजा जाता है और खिलाड़ियों को प्रशंसक सिर-आंखों पर बैठाते हैं। लेकिन भारत में जितनी लोकप्रियता क्रिकेट के खेल को हासिल है उतनी किसी और खेल को नहीं है। भारत में वैसे तो कई तरह के खेल खेले जाते हैं लेकिन बाकी दूसरे खेल क्रिकेट के सामने बौने नजर आते हैं। कहने को हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है लेकिन हॉकी की क्या दुर्दशा है ये किसी से छिपा नहीं है।
कॉलेज में जर्नलिज़्म एंड मास कॉम के अंतिम वर्ष में नियमानुसार किसी एक प्रोजेक्ट पर शोध कार्य करना था। इस बहाने मुझे भारत के सबसे सफल कप्तानों में से एक कैप्टन कूल महेन्द्र सिंह धोनी के जीवन पर बनी बायोपिक फिल्म पर कार्य करने का मौका मिला। यहां उस प्रोजेक्ट के कुछ अंश साझे कर रहा हूं, उम्मीद है कि फिल्म को समझने में ये मददगार साबित होंगे।



एम॰ एस॰ धोनी: द अनटॉल्ड स्टोरी”: एक परिचय
नीरज पांडे द्वारा निर्देशित “एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी” फिल्म की कहानी भारत के सबसे सफलतम कप्तानों में से एक महेंद्र सिंह धोनी के जीवन एवं उनके संघर्ष पर आधारित है। इस फिल्म में महेंद्र सिंह धोनी के जीवन के बचपन के स्कूली दिनों से लेकर 2011 आईसीसी एकदिवसीय विश्व कप जीतने तक के सफर को बखूबी दर्शाया गया है। फिल्म का मूल उद्देश्य एम. एस. धोनी के जीवन के उन पहलुओं को सामने लाना था जो अभी तक अनकहे और अनसुने थे जिसमें निर्देशक नीरज पांडे और निर्माता अरुण पांडे बहुत हद तक सफल भी हुए हैं। फुटबॉल में गोलकीपिंग करने वाला महि नाम का वह लड़का कैसे स्कूली सफर में ही विकेटकीपिंग चुनकर तमाम मुश्किलों को पार करते हुए भारतीय क्रिकेट टीम का एक नायाब सितारा साबित हुआ यही फिल्म में दर्शाया गया है। एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी फिल्म में स्कूली दिनों में महेंद्र सिंह धोनी के क्रिकेट के प्रति लगाव प्रथम श्रेणी क्रिकेटमें संघर्ष तक एक मध्यम वर्ग परिवार की उम्मीदों से लेकर रेलवे में टीसी बनने के सफर तक, धोनी की महिला मित्र प्रियंका से लेकर उनकी पत्नी साक्षी से मिलने तक का सफर और टीम के सीनियर खिलाड़ियों से मनमुटाव वेड रेसिंग रूम के अंदर की राजनीति सेलेकर 2011एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय विश्व कप जीतने तक के अनगिनत पहलुओं को फिल्म में दर्शाने का जो प्रयास नीरज पांडे ने किया है। और वह उसमें बहुत हद तक सफल रहे हैं। फिल्म अपने हर वर्ग में दर्शकों को रिझाने में कामयाब रही है।

एम॰ एस॰ धोनी: द अनटॉल्ड स्टोरी”: फ़िल्म के संदर्भ में क्रिकेट का खेल और खिलाड़ियों का चित्रण
“एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी” की कामयाबी का एक सबसे बड़ा कारण यह भी था कि उसमें क्रिकेटरों का चित्रण बिल्कुल यथार्थ था सिर्फ महेंद्र सिंह धोनी का किरदार जो कि सुशांत सिंह राजपूत ने निभाया है को छोड़कर क्रिकेट से जुड़ा कोई भी वह नाम नहीं था जो महेंद्र सिंह धोनी फिल्म में हुबहू ना दिखाया गया हो। इस फिल्म में खिलाड़ियों के चित्रण को लेकर निर्देशक कितने गंभीर थे इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि फिल्म में युवराज सिंह के किरदार को निभाने के लिए निर्देशक नीरज पांडे ने युवराज सिंह के बिल्कुल हुबहू दिखने वाले पंजाब के कलाकार हैरी तंगीरी को युवा युवराज सिंह के रोल के लिए कास्ट किया। फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत भी कम नहीं थे जो बिल्कुल हुबहू महेंद्र सिंह धोनी की तरह ही लग रहे थे उनकी चाल-हाल, बॉडी लैंग्वेज सब कुछ  बिल्कुल महेंद्र सिंह धोनी की भांति ही था और बाकी रही सही कसर युवराज सिंह ने को देखकर पूरी हो गई।1999 के कूच बिहार ट्रॉफी के मैच में जो फिल्म में दर्शाया गया है मैं युवराज सिंह के किरदार को देखकर दर्शक दांतो तले उंगली दबाने लगते हैं। इसका कारण यह है कि है हैरी तंगीरी नाम का वह कलाकार किसी भी कोण से युवराज से अलग  नहीं लगता। इसके अलावा फिल्म में दिखाए गए सभी क्रिकेटर चाहे वह भारतीय हो चाहे विदेशी हो उन्हें ज्यों का त्यों पर्दे पर दिखाया गया है। वर्ष 2007 का आईसीसी टी20वर्ल्ड कप के मैच हो या 2011 के वनडे इंटरनेशनल वर्ल्ड कप के मैच हो या चाहे भारत का बांग्लादेश दौरा हो या पाकिस्तान का भारत दौरा हो सभी सीरीज में सभी भारतीय एवं विदेशी खिलाड़ियों को हुबहू पर्दे पर दिखाया गया है। इसके पीछे की वजह यह है कि निर्देशक ने इन सभी वास्तविक मैचों को हुबहू पर्दे पर चित्रांकन किया है सिवाय महेंद्र सिंह धोनी के चेहरे पर सुशांत सिंह राजपूत का चेहरा लगाने के।

फिल्म में सचिन तेंदुलकर, गौतम गंभीर, वीरेंद्र सहवाग, ग्लेन मैकग्राथ, मोहम्मद अशरफुल, मिस्बाह-उल-हक, उमर गुल, युवराज सिंह, कुमार संगकारा, उपुल थरंगा, लसिथ मलिंगा, अजंता मेंडिस, शोएब मलिक, शाहिद अफरीदी, सुरेश रैना, एबीडीविलियर्स, विराट कोहली, राहुल द्रविड़ जैसे न जाने कितने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर क्रिकेटर है, जिनको फिल्म में उनके वास्तविक नाम एवं उनकी वास्तविक पहचान के तौर पर ही यथार्थ रूप में पर्दे पर दिखाया गया है। फिल्म का यही वह पक्ष है फिल्म की वास्तविकता एवं यथार्थता को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया फिल्म में सिर्फ किरदारों का चित्रण ही नहीं बल्कि उनके नाम को भी साफ साफ शब्दों में स्पष्ट रुप से आवश्यकता अनुरूप लिया गया है। उदाहरण के लिए देवधर ट्रॉफी के बाद चयनकर्ता साफ तौर पर इंडिया ए टीम के चयन के लिए विकेटकीपर बल्लेबाज के रूप में साफ साफ शब्दों में दिनेश कार्तिक, नमन ओझा, महेंद्र सिंह धोनी और दीप दासगुप्ता का नाम लेते हैं। इन सभी नामों में तनिक भी अंतर ना दिखाना यह दिखाता है यह फिल्म कितनी ज्यादा तथ्यों एवं वास्तविकता पर आधारित है। फिल्म की वास्तविकता यही नहीं रुक जाती पाकिस्तान दौरे पर गई भारतीय टीम मैं जब महेंद्र सिंह धोनी एक मैच में तूफानी पारी खेलते हैं तो उनकी प्रशंसा करते हुए पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने बधाई देते हुए उनके बालों की भी तारीफ की थी, मैं यह दृश्य फिल्म में भी देखकर हैरान था कि उस दृश्य को बिल्कुल हूबहू पर्दे पर उसी तरह दिखाया गया है, उसी तरह उसका चित्रांकन किया गया है जिस तरह वह वास्तविक रूप में था। सिर्फ अंतर था तो महेंद्र सिंह धोनी के चेहरे पर सुशांत सिंह राजपूत के चेहरे का होना इस तरह इन बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि महेंद्र सिंह धोनी के जीवन पर आधारित यह फिल्म पूरी तरह वास्तविकता एवं तथ्यों को मध्य नजर रखते हुए बनाई गई है।यहां तक कि इसमें ना केवल किरदारों का चरित्र चित्रण हूबहू किया गया है, बल्कि घटनाओं एवं खिलाड़ियों के नाम को भी यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया गया है

एमएस धोनी के जीवन पर फिल्म बनने का कारण
एम॰ एस॰ धोनी: द अनटॉल्ड स्टोरी”: फ़िल्म क्रिकेट पर आधारित हैं।फिल्म को बनाने का मकसद था भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता और दीवानगी को भुनाना। कोई भी फिल्म निर्माता जब कोई फिल्म बनाता है तो यह देखता है कि उस फिल्म से उसे कितनी कमाई होगीवह फिल्म समाज पर क्या प्रभाव डालेगी उस फिल्म से लोग खुद को कितना जुड़ा हुआ महसूस करेंगे। एक फिल्म बनाने के पीछे कई सारे मकसद होते हैं। एक फिल्म का विषय चुनते समय निर्माता-निर्देशक अतिरिक्त सावधानी बरतते हैं क्योंकि विषय के आधार पर ही यह तय होता है कि फिल्म किसके लिए है। फिल्म की फोकस ऑडियंस कौन है तथा किस वर्ग को ध्यान में रखकर यह फिल्म बनाई जा रही है। फिल्म बनाने के पीछे सबसे पहला और बड़ा उद्देश्य विशेषकर कमर्शियल सिनेमा में पैसा कमाना है। कोई भी फिल्म निर्देशक कोई फिल्म बनाता है तो वह चाहता है कि वह फिल्म हिट हो, कोई निर्माता उसमें पैसे लगाता है तो उसकी यही तमन्ना होती है कि उसे इस फिल्म से ज्यादा से ज्यादा कमाई हो। बॉलीवुड फिल्म निर्माण का बुनियादी आधार पैसा है इसलिए फिल्म का विषय ऐसा होता है जो दर्शकों को आकर्षित कर सके और उन्हें थिएटर तक खींच लाए ताकि फिल्म बनाने का उद्देश्य सफल हो सके। अजहर और एम. एस. धोनी इन दोनों ही फिल्मों को क्रिकेट आधारित विषय पर  बनाने से यह साफ जाहिर होता है कि यह फिल्म भारतीय क्रिकेट प्रेमियों के लिए है। भारत में क्रिकेट को धर्म की तरह पूजा जाता है क्रिकेट  की शुरुआत भले ही इंग्लैंड में हुई हो और क्रिकेट राष्ट्रीय खेल भले ही ऑस्ट्रेलिया का हो लेकिन भारत में क्रिकेट प्रेमियों की तादाद दुनिया की किसी भी देश के मुकाबले सबसे ज्यादा है। भारत में क्रिकेट का एक बड़ा मार्केट है और क्रिकेट प्रेमियों की एक बड़ी संख्या है। इसी बड़े जनसमूह को लक्षित करके इन दोनों फिल्मों का निर्माण किया गया है।

भारतीयों के लिए कितना महत्वपूर्ण क्रिकेट का खेल है उतने ही महत्वपूर्ण क्रिकेट के खिलाड़ी हैं। भारत में जितने प्रशंसक फिल्मी कलाकारों के हैं उतने ही क्रिकेट खिलाड़ियों के भी हैं ऐसे में कोई क्रिकेटर कोई खिलाड़ी ना होकर एक खास सेलिब्रिटी है और उस सेलिब्रिटी के फैंस अपने सेलिब्रिटी के जीवन से जुड़ी हर एक बात को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। उन्हें लगता है कि वह हमसे कुछ अलग हैं। लोग इन सेलिब्रिटी को अपना प्रेरणा सोत्र मानते हैं और इनका अनुसरण करते हैं। यही नहीं फैंस अपने सेलिब्रिटी के बारे में सब कुछ जानना चाहते हैं मसलन वह क्या खाते पीते हैं, कैसे रहते हैं, उनकी दिनचर्या क्या है, उनके करीब कौन है, वह अपना आदर्श किसे मानते हैं और अगर वह सेलिब्रिटी कोई खिलाड़ी हो तो यह दिलचस्पी और भी बढ़ जाती है क्योंकि एक खिलाड़ी का जीवन कहीं ज्यादा संघर्ष से भरा होता है और आम लोग किसी  फिल्मी सितारे से उतना जुड़ा हुआ महसूस नहीं करते जितना एक क्रिकेट खिलाड़ी से जुड़ जाते हैं क्योंकि क्रिकेट खिलाड़ी उनके लिए एक आम इंसान है जो उनके बीच से ही आया है वह भले ही उस के फैन हैं लेकिन भारत में क्रिकेट खिलाड़ी से उनके फ्रेंड्स का रिश्ता एक दोस्त एक करीबी जैसा है इसका उदाहरण है क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए प्रयुक्त होने वाले नाम। मीडिया और आम लोग इन क्रिकेटरों को इनके असली नाम की जगह इन के निकनेम नामों से बुलाते हैं।


इस तरह से हम देखें तो पाएंगे कि क्रिकेट खिलाड़ियों के जो असली नाम है उसकी जगह जो नाम लेने में आम लोगों को आसानी होती है वह नाम भारत में लोगों के बीच और यहां तक कि मीडिया में भी प्रयोग होते हैं। इस तरह से हम देख सकते हैं कि भारत में लोग क्रिकेट से किस हद तक जुड़े हुए हैं और क्रिकेट खिलाड़ियों को अपने परिवार का हिस्सा, अपना दोस्त, अपना करीबी समझा जाता है भारतीय क्रिकेट प्रेमी अपने क्रिकेट खिलाड़ियों से बेहद प्यार करते हैं और उन पर खूब विश्वास भी करते हैं।

भारत का क्रिकेट मैच चाहे किसी भी देश से क्यों ना हो लेकिन हर भारतीय क्रिकेट प्रेमी यही उम्मीद लगाए बैठा रहता है कि हर बार उनकी टीम ही जीते। क्रिकेट के गेम में हार इन क्रिकेट प्रेमियों को कतई मंजूर नहीं है और अपने इन खिलाड़ियों के बेकार प्रदर्शन करने पर इनके यही फ़ैन्स जमकर गुस्सा भी होते हैं क्योंकि यह खेल भारत में सिर्फ खेल नहीं है छोटे से लेकर बड़े तक हर किसी के लिए क्रिकेट में भारत की जीत बेहद जरूरी है भले ही इस जीत से उनकी जिंदगी में कोई असर ना पड़े। इस जीत के बाद भी उनकी जिंदगी में तमाम वह परेशानियां रहेंगी लेकिन कुछ समय के लिए यह देश अपने क्रिकेट टीम की जीत का जश्न दिल खोलकर मनाता है लेकिन ऐसा हर एक खेल के लिए नहीं सिर्फ क्रिकेट के लिए ही होता है। किसी और खेल में हार जीत भारतीयों के लिए कोई खास मायने नहीं रखती लेकिन क्रिकेट में जीत हर हाल में होनी चाहिए।  भारतीय क्रिकेट टीम की हार जीत भारतीयों की अपनी खुद की हार जीत है। भारतीयों के दिल की धड़कन बनने वाला कोई खेल है तो वह खेल है सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट का खेल यह विशेष सुविधा सिर्फ क्रिकेट के खेल के साथ और क्रिकेट के खिलाड़ी तक ही सीमित है। क्रिकेट और  क्रिकेट खिलाड़ियों का अपना एक बहुत बड़ा फैन बेस है  इसलिए क्रिकेट फिल्म निर्माताओं का पसंदीदा विषय रहा है क्रिकेट विषय पर यूं तो बहुत सी फिल्में बनी हैं लेकिन वह अपनी अपेक्षा के मुताबिक हिट साबित नहीं हुई इसलिए बाद के फिल्म निर्माताओं ने काफी सोच विचार करके इस विषय को थोड़ा और व्यापक बना दिया।


एम॰ एस॰ धोनी: द अनटॉल्ड स्टोरी”:  में क्रिकेट खेल का सकारात्मक चित्रण
एम. एस. धोनी फिल्म में क्रिकेट केंद्र में हैं और सारे पात्र,घटनाक्रम और फिल्म की पूरी पटकथा क्रिकेट के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आती है। क्रिकेट हमारे देश का सबसे प्रिय खेल है जब-जब इंडियन टीम किसी कड़े मुकाबले में फंसी होती है तब-तब पूरे देश की धड़कने है मानो थम सी जाती हैं। क्रिकेट का खेल भारत में सिर्फ खेल नहीं है बल्कि खेल से बढ़कर है। किसी खेल के लिए लोगों की यह दीवानगी नई नहीं है लेकिन अलग-अलग देशों में लोग अलग-अलग खेलों को पसंद करते हैं और उनकी यह पसंद उनके रहन-सहन,सोच, दिनचर्या और काफी हद तक उनके भूगोल व मौसम पर भी निर्भर करती है। जैसे यूरोपीय देशों में ज्यादातर फुटबॉल को पसंद किया जाता है क्योंकि वहां की लाइफ बहुत फास्ट है। दूसरा वहां ठंड ज्यादा पड़ती है। ऐसे में लोग ऐसे खेल को खेलना पसंद करते हैं जिनसे उनके शरीर में गर्मी आए इसके अलावा भारतीय उपमहाद्वीप  के देशों में गर्मी ज्यादा पड़ती है ऐसे में यहां कबड्डी,गिल्ली-डंडा जैसे खेल ज्यादा खेले जाते हैं जिनमें शारीरिक श्रम फुटबॉल जैसे खेलों की अपेक्षा कम लगता है। भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी है लेकिन भारत की जान क्रिकेट के खेल में बसती है आखिर ऐसा क्यों है? इसका जवाब जानने के लिए हमें इतिहास में उतरना पड़ेगा जब देश गुलाम था और भारत में कोई क्रिकेट के बारे में जानता तक नहीं था। क्रिकेट के खेल की शुरुआत इंग्लैंड से हुई और इंग्लैंड के लोग इसे जेंटलमेन गेम्स के नाम से संबोधित करते हैं। क्रिकेट को एक तरह से एलीट वर्ग का खेल माना समझा गया। जब भारत इंग्लैंड का उपनिवेश था तब अंग्रेजों ने भारत में आकर इस खेल को खेला और भारतीय इस खेल से परिचित हुए धीरे-धीरे कुछ भारतीयों ने भी यह खेल खेलना शुरु किया और यहां तक कि भारतीय टीम भी इंग्लैंड में होने वाली क्रिकेट प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने इंग्लैंड जाती थी। यह बात बेहद आश्चर्यचकित करने वाली है कि इन टीमों में उन खिलाड़ियों को शामिल किया जाता था जिन्हें छुरी कांटे से खाना आता था भले ही उन्हें क्रिकेट खेलना ना आता हो क्योंकि इंग्लैंड में भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों को छुरी कांटे से ही खाना होता था। वहां जाकर भारतीय टीम की बेइज्जती ना हो इसलिए टीम के चयनकर्ता ऐसे व्यक्तियों की तलाश में रहते थे जो इंग्लैंड जाकर वहां के तौर तरीके को अपना पाए और उनकी तरह व्यवहार कर पाएं। भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों का खेल और उनका प्रदर्शन तो उस समय बहुत दूर की कौड़ी थी। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता आजाद भारत का क्रिकेट सुधरा और 25 जून 1983  का वह दिन कौन भूल सकता है जब भारत ने वेस्टइंडीजको हरा वर्ल्ड कप अपने नाम किया। भारत क्रिकेट का विश्व विजेता बना और यह कारनामा हुआ इंग्लैंड के लॉर्ड्स स्टेडियम में। वह देश जिसने क्रिकेट खेलना इंग्लैंड से सीखा उसी देश ने पूरी दुनिया को क्रिकेट के खेल में हरा दिया और जीत की इबारत लिखी उसी देश की यानी इंग्लैंड की सरजमीं पर जहां कभी उसे क्रिकेट खेलने के लिए बुलाने का मतलब उनकी बेइज्जती करना होता था। इस वर्ल्ड कप विजय के बाद भारतीय लोगों के दिल में क्रिकेट के खेल के लिए जगह बनने शुरू हुई। भारतीयों ने क्रिकेट के मैच देखने शुरू किए और क्रिकेट के खेल को समझा गिल्ली-डंडा खेल कर बड़े होने वाले हर भारतीय को क्रिकेट में मज़ा आने लगा। भारतीयों के लिए क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं है बल्कि एक जरिया है खुद को साबित करने का,दुनिया के दूसरे देशों के बीच अपनी जगह बनाने का और अपना आत्मविश्वास बढ़ाने का। क्रिकेट के खेल ने भारतीयों को सबसे पहले वह मौका दिया है कि वह खुद पर नाज कर सकें,भारतीय जश्न मनाता है यह सब सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट के साथ ही जुड़ा है किसी और खेल के साथ यह विशेष सुविधा नहीं है क्योंकि किसी और खेल से भारतीय लोग इस तरह से नहीं जुड़ पाए जितना क्रिकेट के खेल से जुड़े हैं।
एम. एस. धोनी फिल्म में यह दिखाया गया है कि कैसे एक खेल किसी इंसान की जिंदगी बदल देता है,कैसे किसी आम इंसान को खास बना देता है,कैसे खिलाड़ी पूरे देश का चहेता बन जाता है,कैसे उसका खेल उसे एक महान व्यक्तित्व में बदल देता है। एम. एस. धोनी फिल्म में धोनी का संघर्ष भी है और उसका अपने खेल के प्रति प्यार, समर्पण और लगन भी। इस फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक आम लड़का महेंद्र पूरे देश का चहेता कैप्टन कूल माही बन जाता है और यह सिर्फ और सिर्फ क्रिकेट के खेल की वजह से ही होता है। धोनी अपनी पढ़ाई और क्रिकेट को  समान महत्व देता है लेकिन उसके पिता की नजरों में पढ़ाई खेल से कहीं ज्यादा जरूरी है। उनके लिए खेल सिर्फ मनोरंजन का एक जरिया भर है,रोजगार का माध्यम नहीं लेकिन कैसे धीरे-धीरे धोनी अपने खेल से मिली सफलता और प्रसिद्धि से अपने पिता की इस सोच को बदलता है यह इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है इस तरह यहां क्रिकेट के खेल का सकारात्मक चित्रण किया गया है।
इसके अलावा फिल्म में एक दृश्य है जिसमें भारत बनाम पाक का मैच होता है उस मैच में धोनी शतकीय पारी खेलकर भारत को विजय दिलाता है लेकिन पाकिस्तान के जिस होटल में धोनी रुकता है वहां दुकान चलाने वाला पाकिस्तानी धोनी के खेल की तारीफ करते हुए कहता है "वाह धोनी साहब बहुत अच्छा खेले आप मजा आ गया आपको खेलते देखकर" यह कथन बहुत जरूरी और दुर्लभ है कि जिस व्यक्ति ने आपके देश को हराया वह भी भारत-पाकिस्तान के मैच में जहां दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण रिश्ते रहते हैं, उसी देश का व्यक्ति अपने विरोधी टीम के खिलाड़ी के खेल की प्रशंसा कर रहा है जिसने अच्छा खेल कर उसकी अपनी टीम को हराया है। लेकिन यह जादू है क्रिकेट के उस खेल का जो दो देशों के तनावपूर्ण रिश्तों को भी मधुर कर देता है और यह साबित करता है कि व्यक्ति,देश और सरहद से भी बड़ा खेल है और आप उस खेल की प्रशंसा करते हैं अपनी सीमाओं से परे होकर।
वहीं दूसरी ओर सिर्फ इस खेल की बदौलत ही वह लोग जो धोनी को व्यक्तिगत रूप से जानते तक नहीं हैं वह भी उस से जुड़ जाते हैं यह इस खेल की ही महिमा है। क्रिकेटर्स की अपनी कोई लाइफ नहीं होती उनका खेल अपने लिए नहीं होता वह व्यक्तिगत ना होकर पूरी टीम के लिए खेलता है ऐसा इस फिल्म के जरिए दिखाया गया है जिससे क्रिकेट के खेल की सकारात्मक छवि बनती है।

एम॰ एस॰ धोनी: द अनटॉल्ड स्टोरी”: में खेल अधिकारियों का नकारात्मक चित्रण
एम॰ एस॰ धोनी: द अनटॉल्ड स्टोरी”: फिल्म में क्रिकेट को तो सकारात्मक रूप में दिखाया गया है लेकिन खेल अधिकारियों और उनके द्वारा की जाने वाली राजनीति को नकारात्मक रूप में दिखाया गया है। खेलों में अगर राजनीति की जाए तो उससे ना केवल एक खिलाड़ी पर असर पड़ता है बल्कि पूरी टीम प्रभावित होती है और इस तरह पूरे खेल पर प्रभाव पड़ता है। एम. एस. धोनी फिल्म में यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि कैसे खेल संघों की लालफीताशाही और लेटलतीफी के चलते एक खिलाड़ी का टीम में चयन होने के बाद भी उसे इसकी जानकारी ना मिल पाना और जब किसी दूसरे स्रोत से जानकारी उसे मिलती भी है, तो भी खेल अधिकारियों की तरफ से खिलाड़ी की कोई मदद नहीं की जाती एक छोटे स्तर के खिलाड़ी के लिए सबसे मुश्किल काम संसाधन जुटाना और आर्थिक रुप से स्थिर होना होता है। खेल संघों और खेल अधिकारियों का यह दायित्व होता है कि वह खेल से जुड़ी तमाम जरूरी सुविधाएं खिलाड़ियों को उपलब्ध कराएं ताकि खिलाड़ी अपना पूरा ध्यान अपने खेल पर लगाएं और बेहतर प्रदर्शन कर पाए। एम. एस. धोनी फिल्म एक दृश्य में दिखाया है कि धोनी का टीम में चयन होने के बाद भी इसकी जानकारी उसे नहीं मिल पाती और जब पता लगता है तो खेल अधिकारी पहले तो अपनी ओर से उसे पूरा आश्वासन देते हैं लेकिन अंतिम समय में हाथ खड़े कर देते हैं और ऐसे समय में धोनी के दोस्त अपने पैसे मिलाकर उसे खेलने के लिए भेजते भी हैं लेकिन देर होने की वजह से धोनी की फ्लाइट छूट जाती है और वह मैच में नहीं खेल पाता। इसके अलावा फिल्म के एक और दृश्य में दिखाया गया है कि कैसे धोनी के रेलवे में टीटी बनने पर उसके साथ वाले उससे जलने लगते हैं और उनकी शिकायत तक कर दी जाती है। वहीं दूसरे दृश्य में सिलेक्शन बोर्ड के अधिकारियों का रवैया दिखाया गया है जहां धोनी को सिर्फ तीन बार विकेटकीपरिंग करने का मौका मिलता है और सिर्फ एक ओवर ही बैटिंग दी जाती है जिससे कि वह अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन नहीं कर पाते। अधिकारियों के इस रवैया के कारण धोनी को ज्यादा मौके नहीं मिल पाए और बहुत बाद में जाकर धोनी भारतीय क्रिकेट टीम का हिस्सा बने। अगर उस समय पर अधिकारी धोनी की मदद कर देते तो शायद धोनी भारतीय टीम का हिस्सा वह पहले ही बन जाते और भारतीय टीम और बेहतर प्रदर्शन कर पाती। और कुछ मैच जो भारतीय टीम हारी है उन्हें शायद जीत में भी बदल सकती थी।
 

Friday, 14 September 2018

गौतम गंभीर ?


गौतम के गंभीर कदम
Picture Credit- NDTV Sports


गौतम गंभीर, यदि आपके दिमाग में इस नाम पर धूल चढ़ गई हो तो मैं आपको बता दूं कि ये वही शख्स है, जो एक समय भारतीय पारी की शुरूआत किया करते थे। आज हम इस नाम को पड़े ही भूल गए हो, लेकिन ये ना भूलें कि भारत को 2007 का टी-ट्वेंटी और 2011 का एकदिवसीय क्रिकेट विश्व कप जितानें में इस खिलाड़ी की भूमिका कितनी थी। 2007 में भारत और पाकिस्तान के बीच खेले गए पहले टी-ट्वेंटी विश्व कप के फाइनल मैच में इस सलामी बल्लेबाज़ ने 54 गेंदो पर 75 रन की शानदार पारी खेलकर जीत दिलाई थी। वहीं, 2 अप्रैल 2011 को भारत और श्रीलंका के बीच खेले गए एकदिवसीय विश्व कप के उस फाइनल मैच को हम भला कैसे भूल सकते हैं, जब सचिन और सहवाग सरीखे दिग्गज खिलाड़ी सस्ते में पवेलियन लौट चुके थे, तब इसी खिलाड़ी ने 122 गेंदो पर 97 रनों की संकटमोचन पारी खेलकर को टीम की जीत में अहम भूमिका निभाई थी।


Pic Credit- Navodaya Times  
   आज यह खिलाड़ी टीम का हिस्सा नहीं है। लेकिन लोगों का दिल ये आज भी जीत रहे हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि पहले क्रिकेट के खेल में और अब समाज सेवा में। गौतम गंभीर अपने फाउंडेशन के जरिए हमेशा सामाजिक कार्यों में आगे रहते हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ में पिछले साल अप्रैल में हुए नक्सली हमलें में शहीद हुए 25 जवानों के बच्चों की पढ़ाई का खर्च वहन करने की घोषणा की थी। सितंबर 2017 में जम्मू-कश्मीर के शहीद पुलिस ऑफिसर अब्दुल राशिद की बेटी को पूरी जिंदगी शिक्षा मुहैया कराने की भी वह घोषणा कर चुके है। गंभीर किन्नर समाज के समर्थन में भी आगे रहते हैं। हाल ही में गौतम गंभीर की कुछ किन्नरों के साथ एक फोटो सोशल मीड़िया पर वायरल हुई थी जिसमें गौतम चुन्नी ओढ़े और बिंदी लगाए एक किन्नर के रूप में ही नज़र आए। लेकिन, इसके पीछे की सच्चाई जानेंगे तो आप इस खिलाड़ी की तारीफ किए बिना रह नहीं पाएंगे। दरअसल, गौतम किन्नर समाज के प्रति अपना समर्थन जताते हुए दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम हिजड़ा हब्बा के उद्घाटन समारोह में पहुंचे थे जहां किन्‍नर समाज ने दुपट्टा ओढ़ाकर और बिंदी लगाकर उनका स्‍वागत किया था।

Pic Credit- Sportskeeda


इससे पहले भी गौतम रक्षाबंधन के मौके पर ट्रांसजेंडर्स से राखी बंधवाते नज़र आए थे। गंभीर ने इसकी फोटो ट्वीट करते हुआ लिखा था कि ये मर्द या औरत होने की बात नहीं है।हाल ही में उन्होंने एक आशा नाम से एक नई पहल की है जिसके तहत गौतम गंभीर फाउंडेशन दिल्ली में गरीब लोगों के लिए मुफ्त रसोई चलाती है। इस तरह गौतम गंभीर वर्ल्ड कप और आईपीएल जिताने के बाद, अब देश को भूख से जिताने में लगे हुए हैँ। सलाम गौतम गंभीर।  



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मुद्दों से भटकती कांग्रेस

मुद्दों से भटकती कांग्रेस


9 हजार करोड़ का कर्ज लेकर भागे विजय माल्या ने भागने से पहले तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली के साथ तथाकथित अनौपचारिक मुलाक़ात की बात क्या कही, पूरी कांग्रेस पार्टी हाय-तौबा मचाने पर उतर आई। खासकर राहुल गाँधी इस मुद्दे पर वित्त मंत्री के बहाने प्रधानमंत्री को घेरने का कोई मौका नही छोड़ रहे है। लेकिन, कांग्रेस अध्यक्ष को कोई तो ये समझाए कि 2016 में जब माल्या देश से भागा, तब वह राज्यसभा सांसद था और किसी भी सांसद का देश के किसी भी मंत्री से संसद परिसर में चलते-चलते यूँ ही मिल जाना, और वो भी अनौपचारिक रूप से, कोई बड़ी बात नहीं। कांग्रेस यह कैसे भूल गई कि माल्या को कर्ज दिया किसने था ? जब भी मोदी सरकार विपक्ष द्वारा किसी मुद्दे पर घिरती दिखाई पड़ती है, तभी बाजार में कोई न कोई ऐसा मुद्दा उछलकर सामने आता है, जो विपक्ष को मूल मुद्दे से भटका जाता है। रुपये की गिरावट और पैट्रोल-डीजल के कीमतों के बीच इस मुद्दे का आना एक ताजा उदाहरण है। मेरे ख्याल से कांग्रेस को चाहिए कि वह नोटबंदी की विफलता, रुपये की गिरावट, पैट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें, किसानों की दुर्दशा, बेरोजगारी इत्यादि जैसे ठोस मुद्दे पर मोदी सरकार पर लगातार जकड़ बनाए रखे। 


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Monday, 10 September 2018

बंद का दंश

                              बंद का दंश


हमारे देश में समय-समय पर किसी न किसी राजनैतिक पार्टी के बैनर तले राष्ट्रव्यापी बंद के आयोजन होते आए है। इन देशव्यापी बंदो के पीछे के कारण हर बार अलग-अलग हो सकते है लेकिन, हर बार इसके पीछे का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ एक ही रहा है, राजनैतिक लाभ। राजनैतिक लाभ के स्वार्थ में ये दल देश को आर्थिक और सामाजिक स्तर पर कितनी हानि पहुंचाते है, इसका आकलन करेंगे तो दंग रह जाएंगे। प्रतिदिन फैक्ट्रियों में होने वाला उत्पादन, शेयर बाजार में शेयरों की खरीदारी और बिकवाली, रियल एस्टेट सेक्टर में प्रतिदिन रखी जा रही एक-एक ईंट, मॉल से लेकर छोटे किराना स्टोर की बिक्री, सरकारी से लेकर निजी क्षेत्र के दफ्तरों में कामकाज समेत टूरिज्म, बैंकिंग और ट्रांसपोर्टेशन (रेल, हवाई सफर, सड़क इत्यादी) ऐसे अनेक क्षेत्र हैं जो बंद या हड़ताल से सीधे तौर प्रभावित होते हैं। ये नुकसान करोड़ो नहीं, बल्कि हजारों करोड़ो में होता है। सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए की, जान-माल की हानि तो हर बार बार ही हुई है और हो रही है। भारत बंद की आड़ में सरकारी संम्पत्ति को नुकसान पहुंचाना, लोगों को हिंसा को शिकार बनाना और अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने वाली भीड़ का उद्देश्य राष्ट्रहित में भला कैसे हो सकता है ! यहां मुझे मिथलेश बरिआ जी की ये पंक्तियाँ प्रासांगिक लग रही है कि भीड़ सरकारी बस जलाकर अभी-अभी लौटी है...उनकी मांग थी कि नौकरी सरकारी चाहिएl


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Sunday, 2 September 2018

...और खेलों इंडिया

     
Picture Credit- Sportskeeda
इंडिनेशिया में चल रहे 18वें एशियन खेलों का सफल आयोजन कल सम्पन्न हो गया। भारतीय खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन पर हम सभी भारतीय निसन्देह गौरवांन्वित हैं। और हो भी क्यूँ ना, भारतीय खिलाड़ियों ने 15 स्वर्ण, 24 रजत और 30 कांस्य पदक सहित कुल 69 पदक
 के साथ तालिका में 8वें स्थान पर रहते हुए एशियन खेलों में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन जो किया है। लेकिन, सवा अरब की जनसंख्या वाले देश के लिए क्या ये काफी है ? नहींइस पदक तालिका में हमसे ऊपर ऐसे कई देश है जो जनसंख्या ही नहीं, संसाधन और समृधि में भी हमारें आस-पास नज़र नहीं आते। फिर क्या वज़ह है जो खेल संस्कृति में हम इनसे पीछे रह गए ?

   बचपन से ही एक कहावत हमारे ऊपर गधे पर बोझ की तरह डाली जाती है, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होओगे खराब। मतलब बिल्कुल साफ है, बचपन से ही हमारा स्वर्णिम भविष्य जबरन हमें पढ़ाई-लिखाई में दिखाया जाता है। खेल-कूद सिर्फ़ मनोरंजन का रुप हो सकता है, कैरियर नहीं, ऐसी सोच दुर्भाग्यवश अभी भी जीवित है। मैं तो इसे विडंबना ही कहूंगा कि देश की प्रतिभाओं को अपने प्रतियोगी से पहले अपने परिवार और रुढ़िवादी समाज़ से भिड़ना पड़ता है। लेकिन शुक्र है, अब धीरे-धीरे सोच और प्रदर्शन दोनों में सकारात्मक बदलाव दिख रहें हैं।

   एक खिलाड़ी का संघर्ष यहीं समाप्त नहीं हो जाता, सबसे बड़ी समस्या सिस्टम से लड़े बिना कहां उसे मंजिल मिलने वाली है। लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के खेल में उलझे ये अधिकारी बाकी खेलों पर ध्यान ही नहीं दे पाते। ऐसी स्थितियों में या तो प्रतिभाएं दम तोड़ देती है या स्पॉन्सर्स के लिए निजी कम्पनियों का रुख करती है। बाद में येही खिलाड़ी जब पदक जीतकर लातें है तो उन पर इनामों की बरसात होती है। सुविधा और संसाधनों की यही बरसात यदि केन्द्र और राज्य सरकारें पूर्व में करे तो ये खिलाड़ी 1 नहीं 4 पदक जीतकर लाएं।

    एशियन और राष्ट्रमंडल खेलों के अलावा ओलंपिक के आंकड़े तो वैश्विक पटल पर साझे करने योग्य भी नहीं। आलम ये है कि 2012 और 2016 के ओलंपिक खेलों में भारतीय दल एक भी स्वर्ण नहीं जीत सका। 2008 के बीजिंग ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण जीतनें के बाद चीन के एक अखबार में इससे जुड़ी एक खबर प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था – “ A nation of billions people wins its first gold”. ये लाइन भारतीयों को धरती दिखाने के लिए काफी है।

      मतलब साफ है कि हमें अभी और खेलने की जरुरत है। जरुरत है देश में उपजे खेलों के बीजों को रोपने की और उनको स्कूली स्तर से ही संवारने की। जरुरत है मीड़िया की सकारात्मक भागीदारी की। जरुरत है वर्तमान खेलमंत्री जैसे और मंत्रियों की जो एक स्पॉटब्वॉय की तरह खिलाड़ियों की सेवा में लगा हो। अब सचमुच जरुरत है कि सिस्टम खेलों से ना खेलकर, खिलाड़ियों का खिलाएं।  

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